(एक)
एक लंबी साँस अभी-अभी गई जो भीतर
उसी का छोटा-सा उच्छास है प्रेम
एक लंबी डगर चलना शुरू किया अभी-अभी
और एक पगडंडी जो साथ चलती रहीं बगल में
उस पर उघड़े है तुम्हारी पगथलियों के निशाँ
यह आँखें टँगी रहीं वक्त की जिस खूँटी पर
उसी पर टँगा है आज भी तुम्हारा रेशमी दुपट्टा।
(दो)
कवि का उत्स यहीं से
यहीं है जो नदी को दिखाता है समंदर की राह
इसी से आती है फूलों की झोली में खुशबू
इसी की बदौलत
चाँद,चाँद है और सूरज, सूरज
आकाश पर टँगे सारे सितारों की दमक इश्क से
धरती पर जो भी बचा है साबुत इसी से
प्रेम बचा रहे दरमियाँ
बची रहेगी पृथ्वी
आकाश भी बचा ही रहेगा धरती के मोह में।
(तीन)
रोशनी जो लौटी है अभी-अभी पश्चिम में
सिंदूरी साँझ में जितना भी गेरुआपन
वो रंग प्रेम का है
धरती के दोनों क्षितिज की हथेलियों में रची है मेहँदी
आकाश असंख्य सितारों की बारात लिए
चला आता रात की देहरी तक
प्रेम में एक चाँद
दूसरे चाँद को जी-भर निरखता हैं
जितनी अजब-गजब है दुनिया की माया
उतनी ही सहज-सरल है प्रेम की काया।
(चार)
लहू में बचा है जितना भी लोहा, वो प्रेम से
पत्तियाँ जो दिख रहीं हरी
उनमें जितना भी बचा है पर्णहरित, वो प्रेम से
पंछियों की जो परवाजें गगन नापती हैं
जिसकी एक छुअन में अँगुलियाँ काँपती हैं
जिसके बिना जिंदगी राह-भर हाँफती है
धरती हो रोज एक टक निहारती है आकाश
आकाश जो बादलों के हाथ भिजवाता है बारिश की प्रेमिल चिट्ठियाँ
यह जो उड़ता फिर रहा पतंगे-सा गली-गली
और कोई नहीं है साहब ! प्रेमी हैं
जिससे धरती-आकाश पढ़ रहे हैं इन दिनों
प्रेम-पाठ।